अतिरिक्त >> मासूमों का मसीहा कैलाश सत्यार्थी मासूमों का मसीहा कैलाश सत्यार्थीअशोक कुमार शर्मा, कृतिका भारद्वाज
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नोबल शांति पुरस्कार विजेता...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
सन् 2014 को सदा ही हिन्दुस्तान के समकालीन इतिहास का अविस्मरणीय साल माना जाएगा और उसे कोई अमन पसंद भारतीय कभी इसलिए भुला नहीं पायेगा, क्योंकि इसी वर्ष भारत में जन्मे तथा देश की माटी से जुड़े सामाजिक क्रांतिकारी कैलाश सत्यार्थी को विश्व शांति के क्षेत्र में संसार के सर्वोच्च सम्मान ‘नोबेल पुरस्कार’ से पुरस्कृत किए जाने का फैसला लिया गया। विश्व के सबसे महान सम्मान को हासिल करनेवाले इस महान भारतीय इंसान के बारे में ज़्यादातर लोग इसलिये नहीं जानते थे, क्योंकि उन्होंने जीवनभर आत्मप्रचार के आडम्बर से बचकर दीन-दुखियों की निःस्वार्थ सेवा की।
शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की जिंदगी और संघर्ष की दास्तान पर आधारित यह पुस्तक आपको, हमारी ही दुनिया में खास तौर से बच्चों के लिए बनाए गए, साक्षात नरक की हकीकत बताने की भी एक कोशिश है। जो लोग कैलाश सत्यार्थी के बारे में नहीं जानते हैं, उनको इस किताब को पढ़ने के बाद निश्चित रूप से बेहद सामान्य से लगनेवाले इस महान हिन्दुस्तानी इंसान पर गर्व की अनुभूति होगी।
पूरे विश्व में कमजोर और निम्न मध्यमवर्गीय समाज के पांच साल से अधिक उम्र के बच्चे बाल-दासता, शोषण और अकल्पनीय रूप से कुत्सित जघन्य व्यापारिक गतिविधियों में ठेल दिए जाते हैं। आपको यह जानकर और भी ज्यादा हैरत होगी कि इस कैंसर से अमेरिका तक पूरे तौर पर आजाद नहीं हो सका है। सबसे कटु सत्य तो यह है कि संसार में दो करोड़ दस लाख से अधिक स्त्री-पुरुष और बच्चे तरह-तरह की दासता में जी रहे हैं। इस किताब को लिखने से पहले खुद मुझको भी अनुमान तक नहीं था कि विश्व में बाल दासता के कितनी तरह के नरक हैं।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2 दिसंबर, 1949 को संसार के हर देश के साथ मानव-व्यापार, बाल दासता और वेश्यावृत्ति मिटाने की एक संधि अंगीकार की थी। इसके बाद 2 दिसंबर, 2004 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘अंतर्राष्ट्रीय दासता उन्मूलन दिवस’ घोषित कर दिया। इस उद्घोषणा के बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून ने एक संदेश में पिछले महीने ही यह स्वीकार किया कि विश्व में अब भी कम-से-कम 2.7 करोड़ लोग दासता के विभिन्न स्वरूपों के शिकार हैं। संसार में अब तक चले तमाम आंदोलन बाल दासता रूपी बीमारी का पूरी तौर पर सफाया नहीं कर पाए हैं। मून ने संसार के तमाम राष्ट्राध्यक्षों को भेजे गए अपने संदेश में स्वीकार किया कि दासता पर रोक के इतने दशकों बाद भी यह किसी-न-किसी पारंपरिक स्वरूप में ज़िंदा है और बाकायदा पनप रही है।
दासता के आधुनिक स्वरूपों की सबसे ज्यादा खतरनाक, व्यापक और संगठित स्थिति है बाल दासता, जिसमें बच्चों को विभिन्न जघन्य उद्देश्यों की खातिर फुसलाकर घिनौने कार्यों में लगाना, चुराकर-खरीदकर अथवा अपहरण करके बेचना, अंगों की तस्करी, बंधुआ मजदूरी, यौन दासता और मानव तस्करी शामिल है। पूरी दुनिया में यह कारोबार लगभग 8000 करोड़ रुपये सालाना कमाता है। अनुमान किया जा सकता है कि जिस कारोबार को सरकारें खत्म नहीं कर पायीं, उसमें कितने बड़े पैमाने पर माफिया का निवेश होगा और इस कारोबार के खिलाफ आवाज़ उठाने के खतरे कितने व्यापक हैं ?
अनुमान किया जाता है कि पूरे ससार में हर साल छह से आठ लाख लोगों की तस्करी की जाती है। इनमें सबसे ज्यादा लड़कियां और बालक होते हैं। उनके साथ जो कुछ होता है उसकी कल्पना तक नामुमकिन है। विश्व में इन अभागों के पुनर्वास से जुटे पुष्ट आकड़े भी किसी सरकार के पास आज तक उपलब्ध नहीं हैं। यही कारण था कि जब 1980 के आसपास फटेहाल और विकास की दौड़ में तब तक फिसड्डी माने जाने वाले मुल्क हिन्दुस्तान में एक उच्च शिक्षित इंजीनियर कैलाश सत्यार्थी ने दासता के सबसे कमाऊ, आकर्षक तथा खतरनाक धंधे के खिलाफ अकेले मोर्चा लेना शुरू किया तो पूरी दुनिया का ध्यान स्वाभाविक तौर पर उनकी ओर गया। सत्यार्थी की यात्रा न तो आसान थी और न ही उनको समाज या सरकार से आरंभिक स्तर पर कोई सहयोग मिला। यह तो उनका जुनून था कि वह अपनी मंजिल की ओर अकेले चलते गए और उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ती गयी।
कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा होते ही डायमंड बुक्स के चेयरमैन, नरेन्द्र वर्मा ने फैसला किया कि उन पर किताब छापी जाए। उनकी नजर में महात्मा गांधी के बाद पहली बार संसार ने किसी हिन्दुस्तानी को इंसानियत का सच्चा पुजारी माना है। आज कैलाश सत्यार्थी विश्व स्तर पर बाल-दासता मुक्ति के महानायक बन चुके हैं।
यह स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं है कि इस पुस्तक को लिखने से पहले तक मैं भी कैलाश सत्यार्थी, उनके जीवन, कार्य, परिवार, संघर्ष, आदर्शो, आकांक्षाओं तथा मानवता के लिए अकल्पनीय त्याग के बारे में उसी तरह नहीं जानता था, जैसे किसी कुएं के मेंढक को बाकी दुनिया के बारे में रत्ती-भर अनुमान नहीं होता। डायमंड बुक्स के चेयरमैन, नरेन्द्र वर्मा का मैं हृदय से आभारी हूं, जिन्होंने मुझे इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रेरित किया। इसमें सुश्री कृतिका भारद्वाज ने सहयोगी लेखक की भूमिका निभायी है।
इसके बाद मेरे लिए इस विषय पर सामग्री जुटाने की समस्या खड़ी हो गयी। नोबेल पुरस्कार मिलने से पूर्व तक कैलाश जी को आम आदमी नहीं जानता था। इन्टरनेट या पुस्तकालयों में कैलाश सत्यार्थी पर पर्याप्त प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही थी, जिसको लेकर एक संपूर्ण पुस्तक बनाई जा सके, जो रोचक भी हो। मैंने कैलाश जी से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन संपर्क नहीं हो पा रहा था। उनसे संपर्क के सूत्र तलाश करने के लिए मैंने बहुत परिश्रम किया। मैंने फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस, लिंक्डइन और उनकी निजी वेबसाइट समेत हर तरीके से उन तक पहुंचने की लगातार कोशिश की। उनके पुरस्कार तथा जीवन के बारे में अखबारों में खबर लिखने वाले पत्रकारों तक के फोन नंबर ढूंढकर उनसे भी मदद मांगी। सबने हाथ खड़े कर दिए। जब किसी भी तरीके से मेरा संपर्क नहीं हो पाया, तब मैंने इस उम्मीद से ‘बचपन बचाओ आदोलन’ (Save The Childhood Movement) की वेबसाइट पर उपलब्ध उनके सात राज्य प्रभारियों के संपर्क के ब्योरे निकाले और एक-एक कर सबसे संपर्क करना शुरू किया कि आखिर कहीं से तो उन तक पहुंचने का कोई मार्ग निकलेगा। अंततः मेरी बात ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ के उत्तर प्रदेश प्रभारी उमाशंकर यादव से हुई। मैं उनकी अत्यंत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे कैलाश सत्यार्थी तथा उनकी सहधर्मिणी सुमेधा कैलाश तक पहुंचा ही दिया। मेरी बहुत ही विस्तृत वार्ता सुमेधा जी से हुई, जो राजस्थान के दौरे पर थीं। उन्होंन मुझे फोन पर ही बहुत विस्तार से एक साक्षात्कार दिया, जिसके आधार पर मैंने सत्यार्थी दंपत्ति के प्रेम, विवाह और परिवार के अज्ञात पहलुओं पर एक पूरा अध्याय लिखा है। बाद में सत्यार्थी जी का फोन खुद ही मेरे मोबाइल पर आया। उन्होंने भी काफी देर बात की और मुझे बहुत-सी जानकारी दी। मजेदार बात यह रही कि जब मैंने उनको किताब में शामिल सामग्री के बारे में बताया तो कई बिन्दुओं पर वह खुद हतप्रभ रह गए और इतना ही बोल पाए, ‘कमाल है, वास्तव में आपने मुझ पर रिसर्च ही कर ली है।’ मैं उनकी उदारता और अनुकम्पा का भी अत्यंत आभारी हूं। कैलाशजी की सासूमां पंडिता राकेश रानी और विदिशावासी उनके बाल सखा, समाजवादी पार्टी के सांसद चौधरी मुनव्वर सलीम से भी मुझे आवश्यक जानकारी मिली। मैं उनके सहयोग का अत्यंत आभारी हूँ।
मैंने यह पुस्तक अपनी पत्नी रंजना के हिस्से के वक्त से, समय निकाल कर लिखी है, सौ सदा की तरह, इस बार भी उनके इस त्याग के प्रति कृतज्ञ हूं।
जीवन में मैंने कोई भी पुस्तक सह-लेखन में नहीं लिखी परन्तु इस पुस्तक की तैयारी तथा संशोधन में मेरी बेटी से भी छोटी एक प्रतिभावान लेखिका कृतिका भारद्वाज ने मेरी सहायता की है, सो उनका इस किताब के यश तथा सफलता में अपने समान ही श्रेय मानता हूं। हिंदी संस्करण के शीर्षक के हिस्से ‘मासूमों का मसीहा’ का नाम सुझाने के लिए ‘आलमी सहारा’ के ब्यूरो प्रमुख डॉ. हमीदुल्लाह सिद्धिकी का आभार।
इस पुस्तक में प्रस्तुत सामग्री, संकलन और शोध का कार्य अधिकतर समाचार पत्रों, विभिन्न पत्रिकाओं, इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है। सभी सन्दर्भ प्रामाणिक और स्वाभाविक हैं। पूरी जानकारी किसी भी स्तर से बहुत प्रयास के बावजूद न मिलने से, वैधानिक कारणों से, कुछ स्थानों पर कुछ व्यक्तियों की पहचान छुपाने के लिए नाम तथा पात्र उजागर न करके कल्पना का भी रचनात्मक प्रयोग किया गया है। इस पुस्तक में किसी का जान-बूझकर अपमान करने से पूरी तरह बचने की कोशिश के बावजूद, यदि किसी को भी कोई आपत्ति होगी तो उसका संज्ञान लेकर आगामी संस्करणों में बिना शर्त सुधार कर दिया जाएगा। इस पुस्तक का किसी भी प्रकार का पारिश्रमिक न तो मैं प्राप्त कर रहा हूं और न प्रकाशक इसके मुनाफे का संस्थान में प्रयोग करेंगे, उन्होंने यह सारी राशि विकलांग बच्चों के पुनर्वास हेतु एक संस्था को भेंट करने का किया है। यह पुस्तक विभिन्न सूत्रों पर आधारित कैलाश सत्यार्थी के जीवन और संघर्ष की घटनाओं का एक सरसरी दस्तावेज़ है और किसी भी रूप में कोई आत्मकथा नहीं मानी जानी चाहिए।
सत्यार्थी जी के जीवन और संघर्ष के बारे में पढ़कर शायद पहली बार आपको अहसास होगा कि संसार में बाल दासता के कितने आयाम हैं। संसार में बच्चों से जुड़ी जितने किस्म की सामाजिक कुरीतियां हैं, उन सबसे जूझने के लिए हर देश में कैलाश सत्यार्थी के एक अलग ही स्वरूप को जाना-माना जाता है। बाल दासता मुक्ति, बाल अधिकार आन्दोलन, बाल शिक्षा, बाल यौन शोषण मुक्ति, बाल रक्षा सामाजिक जागरुकता और इन सब विषयों पर लेखों, साक्षात्कारों तथा रेडियो-टेलीविजन वार्ताकार के रूप में हर बार दुनिया एक नए कैलाश सत्यार्थी से रूबरू होती है। आप भी जानिये भारत के इस सपूत और उनसे जुड़े लोगों को।
शांति के नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी की जिंदगी और संघर्ष की दास्तान पर आधारित यह पुस्तक आपको, हमारी ही दुनिया में खास तौर से बच्चों के लिए बनाए गए, साक्षात नरक की हकीकत बताने की भी एक कोशिश है। जो लोग कैलाश सत्यार्थी के बारे में नहीं जानते हैं, उनको इस किताब को पढ़ने के बाद निश्चित रूप से बेहद सामान्य से लगनेवाले इस महान हिन्दुस्तानी इंसान पर गर्व की अनुभूति होगी।
पूरे विश्व में कमजोर और निम्न मध्यमवर्गीय समाज के पांच साल से अधिक उम्र के बच्चे बाल-दासता, शोषण और अकल्पनीय रूप से कुत्सित जघन्य व्यापारिक गतिविधियों में ठेल दिए जाते हैं। आपको यह जानकर और भी ज्यादा हैरत होगी कि इस कैंसर से अमेरिका तक पूरे तौर पर आजाद नहीं हो सका है। सबसे कटु सत्य तो यह है कि संसार में दो करोड़ दस लाख से अधिक स्त्री-पुरुष और बच्चे तरह-तरह की दासता में जी रहे हैं। इस किताब को लिखने से पहले खुद मुझको भी अनुमान तक नहीं था कि विश्व में बाल दासता के कितनी तरह के नरक हैं।
संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2 दिसंबर, 1949 को संसार के हर देश के साथ मानव-व्यापार, बाल दासता और वेश्यावृत्ति मिटाने की एक संधि अंगीकार की थी। इसके बाद 2 दिसंबर, 2004 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने ‘अंतर्राष्ट्रीय दासता उन्मूलन दिवस’ घोषित कर दिया। इस उद्घोषणा के बाद संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की-मून ने एक संदेश में पिछले महीने ही यह स्वीकार किया कि विश्व में अब भी कम-से-कम 2.7 करोड़ लोग दासता के विभिन्न स्वरूपों के शिकार हैं। संसार में अब तक चले तमाम आंदोलन बाल दासता रूपी बीमारी का पूरी तौर पर सफाया नहीं कर पाए हैं। मून ने संसार के तमाम राष्ट्राध्यक्षों को भेजे गए अपने संदेश में स्वीकार किया कि दासता पर रोक के इतने दशकों बाद भी यह किसी-न-किसी पारंपरिक स्वरूप में ज़िंदा है और बाकायदा पनप रही है।
दासता के आधुनिक स्वरूपों की सबसे ज्यादा खतरनाक, व्यापक और संगठित स्थिति है बाल दासता, जिसमें बच्चों को विभिन्न जघन्य उद्देश्यों की खातिर फुसलाकर घिनौने कार्यों में लगाना, चुराकर-खरीदकर अथवा अपहरण करके बेचना, अंगों की तस्करी, बंधुआ मजदूरी, यौन दासता और मानव तस्करी शामिल है। पूरी दुनिया में यह कारोबार लगभग 8000 करोड़ रुपये सालाना कमाता है। अनुमान किया जा सकता है कि जिस कारोबार को सरकारें खत्म नहीं कर पायीं, उसमें कितने बड़े पैमाने पर माफिया का निवेश होगा और इस कारोबार के खिलाफ आवाज़ उठाने के खतरे कितने व्यापक हैं ?
अनुमान किया जाता है कि पूरे ससार में हर साल छह से आठ लाख लोगों की तस्करी की जाती है। इनमें सबसे ज्यादा लड़कियां और बालक होते हैं। उनके साथ जो कुछ होता है उसकी कल्पना तक नामुमकिन है। विश्व में इन अभागों के पुनर्वास से जुटे पुष्ट आकड़े भी किसी सरकार के पास आज तक उपलब्ध नहीं हैं। यही कारण था कि जब 1980 के आसपास फटेहाल और विकास की दौड़ में तब तक फिसड्डी माने जाने वाले मुल्क हिन्दुस्तान में एक उच्च शिक्षित इंजीनियर कैलाश सत्यार्थी ने दासता के सबसे कमाऊ, आकर्षक तथा खतरनाक धंधे के खिलाफ अकेले मोर्चा लेना शुरू किया तो पूरी दुनिया का ध्यान स्वाभाविक तौर पर उनकी ओर गया। सत्यार्थी की यात्रा न तो आसान थी और न ही उनको समाज या सरकार से आरंभिक स्तर पर कोई सहयोग मिला। यह तो उनका जुनून था कि वह अपनी मंजिल की ओर अकेले चलते गए और उनकी विश्वसनीयता भी बढ़ती गयी।
कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा होते ही डायमंड बुक्स के चेयरमैन, नरेन्द्र वर्मा ने फैसला किया कि उन पर किताब छापी जाए। उनकी नजर में महात्मा गांधी के बाद पहली बार संसार ने किसी हिन्दुस्तानी को इंसानियत का सच्चा पुजारी माना है। आज कैलाश सत्यार्थी विश्व स्तर पर बाल-दासता मुक्ति के महानायक बन चुके हैं।
यह स्वीकार करने में मुझे हिचक नहीं है कि इस पुस्तक को लिखने से पहले तक मैं भी कैलाश सत्यार्थी, उनके जीवन, कार्य, परिवार, संघर्ष, आदर्शो, आकांक्षाओं तथा मानवता के लिए अकल्पनीय त्याग के बारे में उसी तरह नहीं जानता था, जैसे किसी कुएं के मेंढक को बाकी दुनिया के बारे में रत्ती-भर अनुमान नहीं होता। डायमंड बुक्स के चेयरमैन, नरेन्द्र वर्मा का मैं हृदय से आभारी हूं, जिन्होंने मुझे इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रेरित किया। इसमें सुश्री कृतिका भारद्वाज ने सहयोगी लेखक की भूमिका निभायी है।
इसके बाद मेरे लिए इस विषय पर सामग्री जुटाने की समस्या खड़ी हो गयी। नोबेल पुरस्कार मिलने से पूर्व तक कैलाश जी को आम आदमी नहीं जानता था। इन्टरनेट या पुस्तकालयों में कैलाश सत्यार्थी पर पर्याप्त प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही थी, जिसको लेकर एक संपूर्ण पुस्तक बनाई जा सके, जो रोचक भी हो। मैंने कैलाश जी से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन संपर्क नहीं हो पा रहा था। उनसे संपर्क के सूत्र तलाश करने के लिए मैंने बहुत परिश्रम किया। मैंने फेसबुक, ट्विटर, गूगल प्लस, लिंक्डइन और उनकी निजी वेबसाइट समेत हर तरीके से उन तक पहुंचने की लगातार कोशिश की। उनके पुरस्कार तथा जीवन के बारे में अखबारों में खबर लिखने वाले पत्रकारों तक के फोन नंबर ढूंढकर उनसे भी मदद मांगी। सबने हाथ खड़े कर दिए। जब किसी भी तरीके से मेरा संपर्क नहीं हो पाया, तब मैंने इस उम्मीद से ‘बचपन बचाओ आदोलन’ (Save The Childhood Movement) की वेबसाइट पर उपलब्ध उनके सात राज्य प्रभारियों के संपर्क के ब्योरे निकाले और एक-एक कर सबसे संपर्क करना शुरू किया कि आखिर कहीं से तो उन तक पहुंचने का कोई मार्ग निकलेगा। अंततः मेरी बात ‘बचपन बचाओ आन्दोलन’ के उत्तर प्रदेश प्रभारी उमाशंकर यादव से हुई। मैं उनकी अत्यंत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे कैलाश सत्यार्थी तथा उनकी सहधर्मिणी सुमेधा कैलाश तक पहुंचा ही दिया। मेरी बहुत ही विस्तृत वार्ता सुमेधा जी से हुई, जो राजस्थान के दौरे पर थीं। उन्होंन मुझे फोन पर ही बहुत विस्तार से एक साक्षात्कार दिया, जिसके आधार पर मैंने सत्यार्थी दंपत्ति के प्रेम, विवाह और परिवार के अज्ञात पहलुओं पर एक पूरा अध्याय लिखा है। बाद में सत्यार्थी जी का फोन खुद ही मेरे मोबाइल पर आया। उन्होंने भी काफी देर बात की और मुझे बहुत-सी जानकारी दी। मजेदार बात यह रही कि जब मैंने उनको किताब में शामिल सामग्री के बारे में बताया तो कई बिन्दुओं पर वह खुद हतप्रभ रह गए और इतना ही बोल पाए, ‘कमाल है, वास्तव में आपने मुझ पर रिसर्च ही कर ली है।’ मैं उनकी उदारता और अनुकम्पा का भी अत्यंत आभारी हूं। कैलाशजी की सासूमां पंडिता राकेश रानी और विदिशावासी उनके बाल सखा, समाजवादी पार्टी के सांसद चौधरी मुनव्वर सलीम से भी मुझे आवश्यक जानकारी मिली। मैं उनके सहयोग का अत्यंत आभारी हूँ।
मैंने यह पुस्तक अपनी पत्नी रंजना के हिस्से के वक्त से, समय निकाल कर लिखी है, सौ सदा की तरह, इस बार भी उनके इस त्याग के प्रति कृतज्ञ हूं।
जीवन में मैंने कोई भी पुस्तक सह-लेखन में नहीं लिखी परन्तु इस पुस्तक की तैयारी तथा संशोधन में मेरी बेटी से भी छोटी एक प्रतिभावान लेखिका कृतिका भारद्वाज ने मेरी सहायता की है, सो उनका इस किताब के यश तथा सफलता में अपने समान ही श्रेय मानता हूं। हिंदी संस्करण के शीर्षक के हिस्से ‘मासूमों का मसीहा’ का नाम सुझाने के लिए ‘आलमी सहारा’ के ब्यूरो प्रमुख डॉ. हमीदुल्लाह सिद्धिकी का आभार।
इस पुस्तक में प्रस्तुत सामग्री, संकलन और शोध का कार्य अधिकतर समाचार पत्रों, विभिन्न पत्रिकाओं, इन्टरनेट पर उपलब्ध जानकारियों पर आधारित है। सभी सन्दर्भ प्रामाणिक और स्वाभाविक हैं। पूरी जानकारी किसी भी स्तर से बहुत प्रयास के बावजूद न मिलने से, वैधानिक कारणों से, कुछ स्थानों पर कुछ व्यक्तियों की पहचान छुपाने के लिए नाम तथा पात्र उजागर न करके कल्पना का भी रचनात्मक प्रयोग किया गया है। इस पुस्तक में किसी का जान-बूझकर अपमान करने से पूरी तरह बचने की कोशिश के बावजूद, यदि किसी को भी कोई आपत्ति होगी तो उसका संज्ञान लेकर आगामी संस्करणों में बिना शर्त सुधार कर दिया जाएगा। इस पुस्तक का किसी भी प्रकार का पारिश्रमिक न तो मैं प्राप्त कर रहा हूं और न प्रकाशक इसके मुनाफे का संस्थान में प्रयोग करेंगे, उन्होंने यह सारी राशि विकलांग बच्चों के पुनर्वास हेतु एक संस्था को भेंट करने का किया है। यह पुस्तक विभिन्न सूत्रों पर आधारित कैलाश सत्यार्थी के जीवन और संघर्ष की घटनाओं का एक सरसरी दस्तावेज़ है और किसी भी रूप में कोई आत्मकथा नहीं मानी जानी चाहिए।
सत्यार्थी जी के जीवन और संघर्ष के बारे में पढ़कर शायद पहली बार आपको अहसास होगा कि संसार में बाल दासता के कितने आयाम हैं। संसार में बच्चों से जुड़ी जितने किस्म की सामाजिक कुरीतियां हैं, उन सबसे जूझने के लिए हर देश में कैलाश सत्यार्थी के एक अलग ही स्वरूप को जाना-माना जाता है। बाल दासता मुक्ति, बाल अधिकार आन्दोलन, बाल शिक्षा, बाल यौन शोषण मुक्ति, बाल रक्षा सामाजिक जागरुकता और इन सब विषयों पर लेखों, साक्षात्कारों तथा रेडियो-टेलीविजन वार्ताकार के रूप में हर बार दुनिया एक नए कैलाश सत्यार्थी से रूबरू होती है। आप भी जानिये भारत के इस सपूत और उनसे जुड़े लोगों को।
- अशोक कुमार शर्मा
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